
पटना: बिहार में कांग्रेस ने आखिरकार अपना प्रदेश अध्यक्ष बदल दिया है। अखिलेश सिंह की जगह राजेश कुमार को पार्टी ने नया अध्यक्ष बनाया है। नए अध्यक्ष अनुसूचित जाति से आते हैं, जिससे कांग्रेस की बदली हुई रणनीति के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। अखिलेश सिंह पर यह आरोप था कि वे आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के प्रभाव में काम करते थे और वे सवर्ण यानी भूमिहार जाति से आते थे। कांग्रेस ने अब राजनीति का ढर्रा बदल लिया है, जिसमें अखिलेश सिंह जैसे सवर्ण नेताओं की कोई खास गुंजाइश नहीं दिख रही।
कांग्रेस के बिहार प्रदेश प्रभारी कृष्णा अल्लावरु के नेतृत्व में पार्टी ने दो महत्वपूर्ण फैसले लिए—पहला, प्रदेश अध्यक्ष बदलना और दूसरा, आरजेडी से दूरी बनाए रखना। दिलचस्प बात यह है कि अल्लावरु एक महीने से ज्यादा समय से बिहार में हैं, लेकिन उन्होंने अन्य कांग्रेस प्रभारियों की तरह लालू यादव से मुलाकात नहीं की। उनका स्पष्ट कहना था कि कांग्रेस गुटों में बंटी हुई है और इसे खत्म करना उनकी प्राथमिकता है। नए प्रदेश अध्यक्ष की खोज भी इसी सोच के तहत की गई और आलाकमान ने इसे मंजूरी दे दी।
बिहार में 1990 से कांग्रेस की दुर्दशा
1989 तक बिहार में कांग्रेस मजबूत स्थिति में थी और लगातार सत्ता में बनी रही। 1980 से 1989 के बीच कांग्रेस का शासन रहा, जिसमें पांच मुख्यमंत्री बने—जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भगवत झा और सत्येंद्र सिन्हा। सभी सवर्ण थे, जिसके कारण कांग्रेस में दलित और पिछड़ी जातियों की उपेक्षा शुरू हुई। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस का जनाधार खिसकता चला गया।
कभी कांग्रेस में दलित, पिछड़े, मुसलमान और ऊंची जातियों के लोगों का संतुलित प्रतिनिधित्व था। इससे पहले कांग्रेस ने बिहार में दारोगा प्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्री, अब्दुल गफूर को मुख्यमंत्री बनाया था। बीरचंद पटेल, रामलखन यादव, राम जयपाल यादव, लहटन चौधरी, सुमित्रा देवी, अब्दुल कयूम अंसारी, मुंगेरीलाल, डीपी यादव, देवशरण सिंह, सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह जैसे दलित और पिछड़ी जातियों के नेताओं को भी कांग्रेस में अवसर मिलता रहा। लेकिन 1989 के बाद कांग्रेस की नीति बदली और सवर्ण नेतृत्व को तरजीह मिलने लगी। यही कारण है कि आज बिहार में कांग्रेस को ‘लटकन पार्टी’ कहा जाता है, जो किसी अन्य दल के सहारे टिकने को मजबूर है।
राजनीति के नए समीकरण
राजेश कुमार की नियुक्ति कांग्रेस की नई रणनीति का संकेत है। यह नियुक्ति उनकी सांगठनिक क्षमता को देखते हुए नहीं, बल्कि दलितों को साधने की सोच के तहत हुई है। इसमें प्रदेश प्रभारी कृष्णा अल्लावरु की भूमिका अहम रही है। कांग्रेस अब स्पष्ट रूप से दलित और मुसलमानों की राजनीति पर ध्यान केंद्रित कर रही है।
राहुल गांधी भी इसी नीति को आगे बढ़ा रहे हैं। पिछले महीने बिहार दौरे के दौरान उन्होंने दो प्रमुख कार्यक्रमों में हिस्सा लिया—एक संविधान बचाओ अभियान और दूसरा पासी समाज से जुड़े नेता जगलाल चौधरी की 126वीं जयंती का आयोजन। इन दोनों आयोजनों के जरिए राहुल गांधी ने दलित समुदाय को साधने की कोशिश की। अंबेडकर के विचारों को आगे रखकर उन्होंने यह संकेत दिया कि कांग्रेस दलित राजनीति को प्राथमिकता देगी।
बिहार में दलित और मुसलमानों की कुल आबादी 35-36 प्रतिशत है। कांग्रेस इसी जनसांख्यिकीय आधार को मजबूत करना चाहती है। आरजेडी पहले से ही मुसलमान और यादव (MY) समीकरण पर चुनाव लड़ती रही है। कांग्रेस अब मुसलमान और दलितों का समीकरण साधने की कोशिश कर रही है। यह बदलाव महागठबंधन के लिए एक नई चुनौती बन सकता है।
महागठबंधन पर असर
कांग्रेस के इस कदम से बिहार की राजनीति में नए समीकरण बन सकते हैं। आरजेडी और कांग्रेस के रिश्तों में पहले से ही खटास थी, लेकिन अब यह दूरी और बढ़ सकती है। महागठबंधन में कांग्रेस की भूमिका को लेकर सवाल उठने लगे हैं। अगर कांग्रेस खुद को आरजेडी की ‘छोटी सहयोगी’ की भूमिका से बाहर निकालती है, तो इसका असर आगामी विधानसभा चुनावों पर पड़ सकता है।
हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस अपनी इस नई रणनीति को कितनी प्रभावी तरीके से लागू कर पाती है। क्या यह बदलाव सिर्फ नेतृत्व परिवर्तन तक सीमित रहेगा, या फिर कांग्रेस बिहार में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने में सफल होगी? यह आने वाला समय ही बताएगा।
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