
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाते हुए पटना हाईकोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया है, जिसमें हत्या के एक गंभीर मामले में चार आरोपियों को अग्रिम जमानत दी गई थी। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की तीन सदस्यीय पीठ ने यह फैसला सुनाया।
इस केस में याचिका मृतक के बेटे द्वारा दायर की गई थी, जिसमें उसने हाईकोर्ट द्वारा आरोपियों को दी गई अग्रिम जमानत को चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि गंभीर आपराधिक मामलों में बिना उचित विवेचना के अग्रिम जमानत देना न्याय प्रक्रिया के विपरीत है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट यह समझने में असफल रहा कि आरोप गंभीर प्रकृति के थे और इस प्रकार का आदेश न्याय के साथ अन्याय है।
यह घटना वर्ष 2023 की है जब याचिकाकर्ता के पिता और उनके पड़ोसियों के बीच रास्ते को लेकर विवाद हुआ था। इस विवाद ने हिंसक रूप ले लिया और आरोपियों ने कथित तौर पर सरिया और लाठियों से याचिकाकर्ता के पिता पर हमला कर दिया। एफआईआर के मुताबिक, हमले में सिर में गंभीर चोट लगने के कारण घायल व्यक्ति की उसी दिन मृत्यु हो गई। यह भी बताया गया कि हमले के समय याचिकाकर्ता मौके पर मौजूद था और उसने पूरे घटनाक्रम को देखा।
एफआईआर दर्ज होने के बाद सात आरोपियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया गया। इनमें से चार आरोपियों को पटना हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत मिल गई थी। मृतक के बेटे ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, यह कहते हुए कि आरोपियों की भूमिका बेहद गंभीर है और उन्हें अग्रिम जमानत मिलना न्याय के लिए खतरा है।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पटना हाईकोर्ट ने न केवल एफआईआर और सबूतों की गहराई से जांच नहीं की, बल्कि आरोपों की प्रकृति और गंभीरता को भी नजरअंदाज कर दिया। कोर्ट ने कहा, “यह समझ से परे है कि आखिरकार अग्रिम जमानत का आदेश क्यों और कैसे पारित किया गया। जिस तरह से हमले की घटना घटी और पीड़ित की मृत्यु हुई, उससे यह स्पष्ट होता है कि आरोपियों की भूमिका प्राथमिक है और उन्हें राहत नहीं मिलनी चाहिए थी।”
कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि आरोपियों ने पीड़ित को अचेत होने के बाद भी पीटना जारी रखा, जिससे उनकी मंशा और क्रूरता स्पष्ट होती है।
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के अग्रिम जमानत के आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि सभी आरोपी आठ सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करें। साथ ही, अदालत ने निचली अदालत को निर्देशित किया है कि वह आरोपियों की नियमित जमानत याचिकाओं पर तथ्यों के आधार पर निष्पक्षता से विचार करे।
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यह फैसला न्यायपालिका की उस सोच को दर्शाता है जिसमें गंभीर अपराधों में कोई भी राहत सोच-समझकर और पर्याप्त तथ्यों की जांच के बाद ही दी जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश न केवल कानून के प्रति जवाबदेही को दर्शाता है, बल्कि यह संदेश भी देता है कि अपराध की गंभीरता को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
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