
पटना: बिहार की राजनीति हमेशा से राष्ट्रीय दलों के लिए चुनौतीपूर्ण रही है। यहां की सियासी ज़मीन एमपी, राजस्थान या यूपी जैसी नहीं है। जातिवाद की गहरी जड़ें और जातीय समीकरणों के आधार पर खड़ी पार्टियां इसे एक अनोखा राजनीतिक अखाड़ा बनाती हैं। यही वजह है कि राष्ट्रीय दल—भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और कांग्रेस—बिना क्षेत्रीय दलों की बैसाखी के राजनीति करने की सोचते ही औंधे मुंह गिर जाते हैं। गठबंधन की राजनीति में अपने शर्तों पर दो कदम आगे बढ़ने की कोशिश करने पर इन दलों को चार कदम पीछे हटना पड़ता है।
कांग्रेस की ‘एकला चलो’ रणनीति और लालू की नाराजगी
बिहार कांग्रेस के भीतर हाल के घटनाक्रम इस ओर इशारा कर रहे हैं कि पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की छाया से मुक्त होने की तैयारी में है। पहला संकेत तब मिला, जब कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह की विदाई हुई। दूसरा संकेत तब आया, जब कांग्रेस ने लालू यादव की सलाह के बिना अपनी पदयात्रा शुरू की। तीसरा और सबसे अहम संकेत तब मिला, जब एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष कन्हैया कुमार और बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरू ने कांग्रेस की ओर से आक्रामक तेवर दिखाने शुरू किए। कांग्रेस ने 70 से कम सीटों पर चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी और सीएम पद के फैसले को महागठबंधन के विधायकों पर छोड़ने की बात कही।
हालांकि, कांग्रेस के इस ‘एकला चलो’ मूड पर राजद ने सख्त रुख अपनाया। लालू यादव ने साफ संदेश भेज दिया कि इस बार कांग्रेस को 70 सीटें नहीं मिलेंगी। अगर साथ आना है तो 40-50 सीटों पर सहमति बनानी होगी, वरना अकेले मैदान में उतरने की तैयारी कर ले। कांग्रेस के लिए यह बड़ा झटका था, क्योंकि यह तय हो गया कि अकेले लड़ने का उनका सपना फिलहाल साकार नहीं हो पाएगा। लेकिन इस प्रक्रिया में कांग्रेस उन सीटों को चिह्नित कर रही है, जहां एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण और परंपरागत वोट बैंक उसे फायदा पहुंचा सकते हैं।
बीजेपी में सीएम फेस को लेकर असमंजस
बीजेपी भी बिहार में अपने मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर असमंजस में दिखी। कुछ महीने पहले अमित शाह ने कहा था कि बिहार के अगले मुख्यमंत्री का फैसला पार्लियामेंट्री बोर्ड करेगा। उन्होंने लोकतांत्रिक परंपराओं का हवाला देते हुए कहा कि अंतिम निर्णय विधायक दल ही लेगा।
बाद में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने भी अमित शाह की बात को दोहराते हुए कहा कि बिहार के सीएम का फैसला ऊपरवाला (भगवान) करेगा। हालांकि, चुनावी रणनीति साफ करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि एनडीए चुनाव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ेगा। लेकिन सीएम पद का अंतिम निर्णय एनडीए के घटक दल मिलकर करेंगे।
नीतीश कुमार को लेकर जदयू में बेचैनी
बीजेपी की इस अस्पष्ट स्थिति के बाद जनता दल (यू) में भी हलचल तेज हो गई। विपक्ष ने कहना शुरू कर दिया कि कहीं नीतीश कुमार महाराष्ट्र के एकनाथ शिंदे न बन जाएं! इस बीच, खुद नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार ने एनडीए के शीर्ष नेतृत्व से अपील कर डाली कि उनके पिता को औपचारिक रूप से सीएम कैंडिडेट घोषित किया जाए।
आखिरकार, बीजेपी ने स्थिति स्पष्ट करते हुए नीतीश कुमार को ही एनडीए का मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर दिया। इस घोषणा के साथ ही जदयू के भीतर चल रही असमंजस की स्थिति खत्म हुई और महागठबंधन बनाम एनडीए की लड़ाई एक नए मुकाम पर पहुंच गई।
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बिहार की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का दबदबा अभी भी बरकरार है। कांग्रेस और बीजेपी की कोशिशें अब तक कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पाई हैं। जहां कांग्रेस गठबंधन की मजबूरियों से बाहर निकलने की राह तलाश रही है, वहीं बीजेपी अब भी मुख्यमंत्री पद को लेकर अपनी रणनीति को अंतिम रूप देने में जुटी है। आने वाले विधानसभा चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कोई राष्ट्रीय दल बिहार की सत्ता में मजबूत वापसी कर पाता है या फिर क्षेत्रीय दलों का दबदबा कायम रहेगा!
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